आतंक के मौसम को बरकत रास नहीं आती

आतंक के मौसम को बरकत रास नहीं आती
तेरे रहनुमाओं को ये कारिंदगी ख़ास नहीं आती
रूठी पड़ी हैं तेरे शहरों की हंसी ए दोस्त और वहाँ
बदनुमा रातें हैं लहू लुहान,  हसीं कोई सहर नहीं आती
बे अदब हैं कायदे कानून तेरे  ए शरीफ जादे
मुल्क चलाने की काबलियत तुझमें  नजर नहीं आती
मिल गया मिट्टी में या  गुरबत तुझे ले डूबी है,
आज़ादी की उधर से अब कोई दरख्वास्त नहीं आती ...

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